लौकिक साहित्य (धर्मेत्तर)

लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक एवं समसामयिक साहित्य आते हैं। ऐसे साहित्य को धर्मेत्तर साहित्य भी कहते हैं। इस प्रकार की कृतियों से तत्कालीन भारतीय समाज के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को जानने में काफी मदद मिलती है।
ऐसी रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र का किया जाता है।
धर्मेत्तर साहित्य – धार्मिक साहित्य के लेखकों का मुख्य उद्देश्य अपने धर्म के सिद्धान्तों का उपदेश देना था, इसीलिए उससे राजनीतिक गतिविधियों पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। धर्मेत्तर साहित्य में पाणिनी की अष्टाध्यायी का उल्लेख है। इससे हमें मौर्यकाल से पूर्व के भारत की राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक दशा की कुछ जानकारी मिलती है। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस, सोमदेव के कथासरित सागर और क्षेमेन्द्र की वृहतकथा मंजरी से मौर्यकाल की कुछ अध्यायों से कुछ घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है। किंतु कौटिल्य के अर्थशास्त्र के कुछ अध्यायों से मौर्य शासन के आदर्श और पद्धति का पता चलता है।
लौकिक साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जो लोक संवेदना से उपजकर उसका संवर्धन, संचयन और प्रकटीकरण करता है। इसके साथ ही वह लोक जीवन से अविच्छन्न रहकर लोक का कंठहार बना रहता है। इसके संरक्षण का दायित्व लोक द्वारा ही निभाया जाता है। नारी के सहज श्रृंगार से लेकर उसके मानसिक सौंदर्य तक पहुंचने की प्रवृति आदिकाल के इस साहित्य में प्रस्फुटित हुई है। इसके प्रमुख कवि अमीर खुसरो और विद्यापति है।
हिन्दी साहित्य के आदिकाल में लौकिक साहित्य विपुल मात्रा में रचा गया था। अमीर खुसरो की पहेलियां और मुकरियां, रोड़ा कवि द्वारा रचित पद्य मिश्रित धोलामारुरादुहा, बसन्त विलास आदि भी लौकिक साहित्य का प्रमुख अंग है।