भारतीय इतिहास में व्यापार-वाणिज्य की शुरुआत हड़प्पा काल से मानी जाती है। भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत, आर्थिक संपन्नता, आध्यात्मिक उपलब्धियां, दर्शन, कला आदि से प्रभावित होकर मध्यकाल में बहुत से व्यापारियों एवं यात्रियों का यहां आगमन हुआ। किंतु 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के मध्य भारत में व्यापार के प्रारंभिक उद्देश्यों से प्रवेश करने वाली यूरोपीय कंपनियों ने यहां की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक नियति को लगभग 350 वर्षों तक प्रभावित किया। इन विदेशी शक्तियों में पुर्तगाली प्रथम थे। इनके पश्चात् डच, अंग्रेज, डेनिश तथा फ्रांसीसी आए। डचों के अंग्रेजों से पहले भारत आने के बावजूद ब्रिटिश ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की स्थापना डच ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ से पहले हुई थी।
देश के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत लेकर आया। लाभ चाहने वाले व्यापारियों के रुप में साधारण शुरुआत से यूरोपीय लोग जल्द ही भारतीय धरती के विशाल भूभाग पर औपनिवेशिक शासकों के रुप में उभरेंगे। पुर्तगाली सबसे पहले 1498 में वास्कोडिगामा के नेतृत्व में मालाबार तट पर आये थे।यूरोपीय शक्तियों में पुर्तगाली कंपनी ने भारत में सबसे पहले प्रवेश किया था। भारत के लिए नए समुद्री मार्ग की खोज पुर्तगाली व्यापारी वास्कोडिगामा ने 17 मई, 1498 को भारत के पश्चिमी तट पर अवस्थित बंदरगाह कालीकट पहुंचकर की।
भारतीय उपमहाद्वीप में कई स्थलों ने प्राचीन और मध्ययुगीन दोनों काल में व्यापारिक केंद्र के रुप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में ब्रिटिश शासन की औपचारिक स्थापना से बहुत पहले भारत और यूरोपीय देशों के बीच वस्तुओं का आदान-प्रदान फल-फूल रहा था। ऑक्सस घाटी, मिस्र और सीरिया भारत को यूरोप से जोड़ने वाले महत्वपूर्ण स्थलीय व्यापार मार्गों के रुप में कार्य करते थे। 15वीं शताब्दी में यूरोप की भूमि और जलमार्गों की व्यापक खोज देखी गई, जिससे दोनों क्षेत्रों के बीच व्यापार संबंधों में और वृद्धि हुई।
1492 में एक इतालवी खोजकर्ता क्रिस्टोफर कोलंबस को अमेरिका की खोज का श्रेय दिया जाता है, जबकि 1498 में एक पुर्तगाली खोजकर्ता वास्को डी गामा ने यूरोप और भारत को जोड़ने वाला एक नया समुद्री मार्ग स्थापित किया था। इस सफलता ने विभिन्न यूरोपीय व्यापारिक फर्मों को भारत में स्थानांतरित होने और अपना परिचालन स्थापित करने के लिए प्रेरित किया।
यूरोपीय वस्तुओं की बढ़ती मांग के कारण भारत से माल को कई देशों से होकर गुजरना पड़ता था और विभिन्न मध्यस्थों से होकर गुजरना पड़ता था। इन आयातित वस्तुओं पर तब मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में शासकों द्वारा टोल और शुल्क लगाया जाता था। नतीजतन यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों ने मुनाफा बढ़ाने के लिए भारत के भीतर अपने व्यापार केंद्र स्थापित करने की मांग की, जिससे उन्हें सीधे इस क्षेत्र में जाने के लिए प्रेरित किया गया और परिणामस्वरुप भारत में यूरोपीय कंपनियों की स्थापना हुई।